सोमवार, 27 दिसंबर 2010

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है – 'ग़ालिब'

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है   – मिर्ज़ा असदुल्लाह खान 'ग़ालिब'


 आज २७ दिसम्बर, ग़ालिब के जन्मदिवस पर हमारी ओर से भारत के इस महान शायर को भावभीनी श्रद्धांजलि ..
मिर्जा जी पर फिल्माये गए इस टीवी सीरियल का गीत जरूर सुनें ...


समर निंद्य है / भाग ५ और ६ – रामधारी सिंह 'दिनकर'

भाग – ५
जिनकी भुजाओं की शिराएँ फड़की ही नहीं,
जिनके लहू में नहीं वेग है अनल का;
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का;

जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं,
ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका;
जिनको सहारा नहीं भुज के प्रताप का है,
बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का

युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वाजधारी या कि
वह जो अनीति-भाल पै गे पाँव चलता?
वह जो दबा है शोशणो के भीम शैल से या
वह जो खड़ा है मग्न हँसता मचलता?

वह जो बना के शान्ति-व्यूह सुख लूटता या
वह जो अशान्त हो क्षुधानल से जलता?
कौन है बुलाता युद्ध? जाल जो बनाता !
या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?

पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है।
शोषण की श्रृंखला के हेतु बनती जो शान्ति,
युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशान्ति है;

सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व की है,
ईश की अवज्ञा घोर, पौरुष की श्रान्ति है;
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव, क्रान्ति है।

भूल रहे हो धर्मराज, तुम
अभी हिंस्र भूतल है,
खड़ा चतुर्दिक अहंकार है,
खड़ा चतुर्दिक छल है।

मैं भी हूँ सोचता जगत से
कैसे उठे जिघाँसा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर
करुणा, प्रेम, अहिंसा।

जियें मनुज किस भाँति परस्पर
हो कर भाई-भाई
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का,
कैसे रुके लड़ाई।

पृथ्वी हो साम्राज्य स्नेह का,
जीवन स्निग्ध, सरल हो,
मनुज-प्रकृति से विदा सदा को
दाहक द्वेष-गरल हो।

बहे प्रेम की धार, मनुज को
वह अनवरत भिगोये,
एक दूसरे के उर में नर
बीज प्रेम के बोये।

किन्तु, हाय, आधे पथ तक ही
पहुँच सका यह जग है,
अभी शान्ति का स्वप्न दूर
नभ में करता जगमग है।

भूले-भटके ही पृथ्वी पर
वह आदर्श उतरता,
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
ही स्वरूप है धरता।

किन्तु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
बार-बार टकरा के,
रुद्ध मनुज के मनोदेश के
लौह-द्वार को पा के;

घृणा, कलह, विद्वेष, विविध
तापों से आकुल हो कर,
हो जाता उड्डीन एक-दो
का ही हृदय भिगो कर।

भाग – ६

क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
अगणित अभी यहाँ हैं,
बढे़ शान्ति की लता हाय,
वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?

शान्ति-बीन तब तक बजती है
नहीं सुनिश्चित सुर में,
स्वर की शुद्ध प्रतिध्वनि जब तक
उठे नहीं उर-उर में।

यह न बाह्य उपकरण, भार बन
जो आवे ऊपर से।
आभा की यह ज्योति, फूटती
सदा विमल अंतर से।

शान्ति नाम उस रुचिर सरणि का
जिसे प्रेम पहचाने,
खड्ग-भीत तन ही न,
मनुज का मन भी जिसको माने।

शिवा-शान्ति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में;
सदा जन्म लेती वह नर के
मन:प्रान्त निस्पृह में।

गरल-द्रोह-विस्फोट-हेतु का
करके सफल निवारण,
मनुज-प्रकृति ही करती शीतल
रूप शान्ति का धारण।

जब होती अवतीर्ण शान्ति यह,
भय न शेष रह जाता,
शंका-तिमिर-ग्रस्त फिर कोई
नहीं देश रह जाता।

शान्ति ! सुशीतल शान्ति ! कहाँ
वह समता देने वाली?
देखो, आज विषमता की ही
वह करती रखवाली।

आनन सरल, वचन मधुमय है,
तन पर शुभ्र वसन है,
बचो युधिष्ठिर ! इस नागिन का
विष से भरा दशन है।

यह रखनी परिपूर्ण नृपों से
जरासन्ध की कारा,
शोणित कभी, कभी पीती है
तप्त अश्रु की धारा।

कुरुक्षेत्र में जली चिता जिसकी,
वह शान्ति नहीं थी;
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली,
वह दुष्क्रान्ति नहीं थी।

थी परस्व-ग्रासिनी भुजंगिनी,
वह जो जली समर में,
असहनशील शौर्य था, जो
बल उठा पार्थ के शर में।

नहीं हुआ स्वीकार शान्ति को
जीना जब कुछ देकर,
टूटा पुरुष काल-सा उस पर
प्राण हाथ में लेकर।

पापी कौन ? मनुज से उसका
न्याय चुराने वाला ?
याकि न्याय खोजते विघ्न का
सीस उड़ाने वाला?      – रामधारी सिंह 'दिनकर'


*साभार: कविताकोश

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

समर निंद्य है / भाग ३ और ४ – रामधारी सिंह 'दिनकर'

भाग – ३
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है जब तक न्याय न आता,
जैसा भी हो महल शान्ति का सुदृढ़ नहीं रह पाता।

कृत्रिम शान्ति सशंक आप अपने से ही डरती है,
खड्ग छोड़ विश्वास किसी का कभी नहीं करती है|

और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था में सुख-भोग सुलभ है,
उनके लिये शान्ति ही जीवन - सार, सिद्धि दुर्लभ है।

पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर, शोणित पी कर तन का,
जीती है यह शान्ति, दाह समझो कुछ उनके मन का।

स्वत्व माँगने से न मिले, संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे जियें या कि मिट जायें?

न्यायोचित अधिकार माँगने से न मिले, तो लड़ के,
तेजस्वी छीनते समर को जीत, या कि खुद मर के।

किसने कहा पाप है समुचित स्वत्व-प्राप्ति-हित लड़ना?
उठा न्याय का खड्ग समर में अभय मारना-मरना?

क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल की दे वृथा दुहाई,
धर्मराज व्यंजित करते तुम मानव की कदराई।

हिंसा का आघात तपस्या ने कब, कहाँ सहा है?
देवों का दल सदा दानवों से हारता रहा है।

मन:शक्ति प्यारी थी तुमको यदि पौरुष ज्वलन से,
लोभ किया क्यों भरत-राज्य का? फिर आये क्यों वन से?

पिया भीम ने विष, लाक्षागृह जला, हुए वनवासी,
केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख कहलायी दासी।

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ कब हारा?

भाग – ४

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष तुम हुए विनत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है,
पौरुष का आतक मनुज कोमल हो कर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो।
उसको क्या, जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो?

तीन दिवस तक पथ माँगते रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छंद अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर "त्राहि-त्राहि" करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की, बँधा मूढ़ बंधन में।

सच पूछो तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशील क्षमा, दया को तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।

जहाँ नहीं सामर्थ्य शोढ की, क्षमा वहाँ निष्फल है।
गरल-घूँट पी जाने का मिस है, वाणी का छल है।

फलक क्षमा का ओढ़ छिपाते जो अपनी कायरता,
वे क्या जानें प्रज्वलित-प्राण नर की पौरुष-निर्भरता?

वे क्या जाने नर में वह क्या असहनशील अनल है,
जो लगते ही स्पर्श हृदय से सिर तक उठता बल है?      – रामधारी सिंह 'दिनकर'


(भाग ५ और ६ अगले पोस्ट में...)
*साभार: कविताकोश

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

समर निंद्य है / भाग १ और २ – रामधारी सिंह 'दिनकर'

भाग – १
समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है?

सुख-समृद्धि का विपुल कोष संचित कर कल, बल, छल से,
किसी क्षुधित का ग्रास छीन, धन लूट किसी निर्बल से।

सब समेट, प्रहरी बिठला कर कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही न इसमें गरल क्रान्ति का घोलो।


हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त अपना मुझको पीने दो,
अचल रहे साम्राज्य शान्ति का, जियो और जीने दो।

सच है सत्ता सिमट-सिमट जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष क्यों चाहें कभी लड़ाई ?

सुख का सम्यक-रूप विभाजन जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो जहाँ खड्ग के भय से,

जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति को सत्ताधारी,
जहाँ सूत्रधर हों समाज के अन्यायी, अविचारी;

नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहने वालों के सीस उतारे जायें;

जहाँ खड्ग-बल एकमात्र आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो हृदय जहाँ जन-जन का;


सहते-सहते अनय जहाँ मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को धिक्कार रहा जन-जन हो;

भाग – २
अहंकार के साथ घृणा का जहाँ द्वंद हो जारी;
ऊपर, शान्ति, तलातल में हो छिटक रही चिंगारी;

आगामी विस्फोट काल के मुख पर दमक रहा हो;
इंगित में अंगार विवश भावों के चमक रहा हो;

पढ़कर भी संकेत सजग हों किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें आहुतियाँ बारी-बारी;

कभी नये शोषण से, कभी उपेक्षा, कभी दमन से,
अपमानों से कभी, कभी शर-वेधक व्यंत्य-वचन से।

दबे हुए आवेग वहाँ यदि उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव अन्यायी पर टूटें,

कहो कौन दायी होगा उस दारुण जगद्दहन का
अहंकार या घृणा? कौन दोषी होगा उस रण का ?

तुम विषण्ण हो समझ हुआ जगदाह तुम्हारे कर से।
सोचो तो, क्या अग्नि समर की बरसी थी अंबर से?

अथवा अकस्मात मिट्टि से फूटी थी यह ज्वाला ?
या मंत्रों के बल से जनमी थी यह शिखा कराला ?

कुरुक्षेत्र से पूर्व नहीं क्या समर लगा था चलने ?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक हृदय-हृदय में बलने ?

शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का जब वर्जन करती है,
तभी जान लो, किसी समर का वह सर्जन करती है।

शान्ति नहीं तब तक; जब तक सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।

ऐसी शान्ति राज्य करती है तन पर नहीं हृदय पर,
नर के ऊँचे विश्वासों पर, श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।      – रामधारी सिंह 'दिनकर'


(भाग ३ और ४ अगले पोस्ट में...)
*साभार: कविताकोश

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

चांद और कवि – रामधारी सिंह 'दिनकर' (सामधेनी)

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
"रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।"   – रामधारी सिंह 'दिनकर'
(संग्रह: सामधेनी)



*साभार: कविताकोश

शनिवार, 27 नवंबर 2010

आग की भीख – रामधारी सिंह 'दिनकर' (सामधेनी)

धुँधली हुईं दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ-सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है;
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है?
दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तम-बेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान माँगता हूँ।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बल-पुँज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अन्धेर हो रहा है।
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है।
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्य-नाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ता-विनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बँधी उमंगें असहाय जल रही हैं,
अरमान-आरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगी-खुली पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं।
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।

आँसू-भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे श्मशान में आ श्रृंगी जरा बजा दे;
फिर एक तीर सीनों के आर-पार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नई दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे।
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनल-विशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ,
तेरी दया विपद् में भगवान, माँगता हूँ।  – रामधारी सिंह 'दिनकर' (सामधेनी-१९४३)

सोमवार, 22 नवंबर 2010

विफलता : शोध की मंज़िलें – लोकनायक जयप्रकाश नारायण

जीवन विफलताओं से भरा है,
सफलताएँ जब कभी आईं निकट,
दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से ।

तो क्या वह मूर्खता थी ?
नहीं ।

सफलता और विफलता की
परिभाषाएँ भिन्न हैं मेरी !

इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व
बन नहीं सकता प्रधानमन्त्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रान्ति-शोधक के लिए
कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे,
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के,
पथ-संघर्ष के, सम्पूर्ण-क्रान्ति के ।

जग जिन्हें कहता विफलता
थीं शोध की वे मंज़िलें ।

मंजिलें वे अनगिनत हैं,
गन्तव्य भी अति दूर है,
रुकना नहीं मुझको कहीं
अवरुद्ध जितना मार्ग हो ।
निज कामना कुछ है नहीं
सब है समर्पित ईश को ।

तो, विफलताओं पर तुष्ट हूँ अपनी,
और यह विफल जीवन
शत–शत धन्य होगा,
यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का
कण्टकाकीर्ण मार्ग
यह कुछ सुगम बन जावे !     – लोकनायक जयप्रकाश नारायण

(९ अगस्त १९७५, चण्डीगढ़-कारावास में)


लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा लिखी गयी यह कविता आज लोगों को जरूर पढ़नी और समझनी चाहिए कि लोग जिसे विफलता कहते हैं वो किसी के लिए किस हद तक सफलता हो सकती है।
मैन आज यह जरूर मनाता हूँ कि लोग ७० के दशक के इस लोकनायक को भूलते जा रहे हैं पर इतना जरूर विश्वास के साथ कहूँगा कि अगर इस व्यक्ति के बारे में यदि कोई थोड़ा भी जान ले तो इनके व्यक्तित्व से अवश्य ही प्रभावित होगा।

दुष्यंत कुमार की गज़ल की एक पंक्ति भूल नहीं पाएंगे हम
"एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है"



त्यागमूर्ति, नमामि त्वम् । 



*साभार: गूगल

शनिवार, 20 नवंबर 2010

धरा की माटी बहुत महान – श्रीकृष्ण सरल

धरा है हमको मातृ समान
धरा की माटी बहुत महान

स्वर्ण चाँदी माटी के रूप
विलक्षण इसके रूप अनेक
इसी में घुटनों घुटनों चले
साधु संन्यासी तपसी भूप
इसी माटी में स्वर्ण विहान
इसी में जीवन का अवसान
धरा की माटी बहुत महान

धरा की माटी में वरदान
धरा की माटी में सम्मान
धरा की माटी में आशीष
धरा की माटी में उत्थान
धरा की माटी में अनुरक्ति
सफलता का निश्चित सोपान
धरा की माटी बहुत महान

धरा देती है हमको अन्न
धरा रखती है हमें प्रसन्न
धरा ही देती अपना साथ
अगर हो जाते कभी विपन्न
धरा की सेवा अपना धर्म
धरा अपनी सच्ची पहचान
धरा की माटी बहुत महान     – श्रीकृष्ण सरल



*साभार: कविताकोश

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

सत्य / खिचड़ी विप्लव देखा हमने – नागार्जुन

सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से
टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए–जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात

सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है

वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक

लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है

जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा
लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!    –  नागार्जुन


*साभार: कविताकोश

सोमवार, 15 नवंबर 2010

चीथड़े में हिन्दुस्तान – दुष्यन्त कुमार

एक गुडिया की कई कठपुतलियों में जान है,
आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है।

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए,
यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।

एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अँधेरी कोठारी में एक रौशनदान है।

मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है।

इस कदर पाबंदी-ए-मज़हब की सदके आपके
जब से आज़ादी मिली है, मुल्क में रमजान है।

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला की हिन्दुस्तान है।


मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।  – दुष्यन्त कुमार


७० के दशक में (इमरजेंसी के समय) लिखी गई यह आग उगलती, सचेत कराती, राह बताती गज़ल आज के समय के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण है

रविवार, 14 नवंबर 2010

क़दम मिलाकर चलना होगा। – अटल बिहारी वाजपेयी

बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।   – अटल बिहारी वाजपेयी

शनिवार, 13 नवंबर 2010

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है – दुष्यन्त कुमार

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।   – दुष्यन्त कुमार

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

जय बोलो बेईमान की! – काका हाथरसी

मन मैला तन ऊजरा भाषण लच्छेदार
ऊपर सत्याचार है भीतर भ्रष्टाचार
झूठों के घर पंडित बाँचें कथा सत्य भगवान की
जय बोलो बेईमान की!

लोकतंत्र के पेड़ पर कौआ करें किलोल
टेप-रिकार्डर में भरे चमगादड़ के बोल
नित्य नयी योजना बनतीं जन-जन के कल्यान की
जय बोलो बेईमान की!

महँगाई ने कर दिए राशन – कारड फेल
पंख लगाकर उड़ गए चीनी-मिट्टी-तेल
क्यू में धक्का मार किवाड़ें बंद हुईं दूकान की
जय बोलो बेईमान की!

डाक-तार-संचार का प्रगति कर रहा काम
कछुआ की गति चल रहे लैटर-टेलीग्राम
धीरे काम करो तब होगी उन्नति हिन्दुस्तान की
जय बोलो बेईमान की!

चैक कैश कर बैंक से लाया ठेकेदार
कल बनाया पुल नया, आज पड़ी दरार
झाँकी-वाँकी कर को काकी फाइव ईयर प्लान की
जय बोलो बेईमान की!

वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश
छ:-सौ पर दस्तखत किए मिले चार-सौ-बीस
मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की
जय बोलो बेईमान की!

खड़े ट्रेन में चल रहे कक्का धक्का खायँ
दस रुपये की भेंट में थ्री टीयर मिल जाएँ
हर स्टेशन पर पूजा हो श्री टीटीई भगवान की
जय बोलो बेईमान की!

बेकारी औ भुखमरी महँगाई घनघोर
घिसे-पिटे ये शब्द हैं बन्द कीजिए शोर
अभी ज़रूरत है जनता के त्याग और बलिदान की
जय बोलो बेईमान की!

मिल मालिक से मिल गए नेता नमक हलाल
मंत्र पढ़ दिया कान में खत्म हुई हड़ताल
पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी श्रमिकों के शैतान की
जय बोलो बेईमान की!

न्याय और अन्याय का नोट करो डिफरेंस
जिसकी लाठी बलवती हाँक ले गया भैंस
निर्बल धक्के खाएँ तूती बोल रही बलवान की
जय बोलो बेईमान की!

पर-उपकारी भावना पेशकार से सीख
बीस रुपे के नोट में बदल गई तारीख
खाल खिच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की
जय बोलो बेईमान की!

नेताजी की कार से कुचल गया मज़दूर
बीच सड़क पर मर गया हुई गरीबी दूर
गाड़ी ले गए भगाकर जय हो कृपानिधान की
जय बोलो बेईमान की!    –  काका हाथरसी


*साभार: कविताको, गूगल

बुधवार, 10 नवंबर 2010

स्वप्न भी छल, जागरण भी! / निशा निमन्त्रण – हरिवंशराय बच्चन

भूत केवल जल्पना है,
औ’ भविष्यत कल्पना है,
वर्तमान लकीर भ्रम की! और है चौथी शरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!

मनुज के अधिकार कैसे!
हम यहाँ लाचार ऐसे,
कर नहीं इनकार सकते, कर नहीं सकते वरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!

जानता यह भी नहीं मन,
कौन मेरी थाम गर्दन,
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी!
स्वप्न भी छल, जागरण भी!        – (निशा निमन्त्रण)


*साभार: कविताकोश

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

सब जीवन बीता जाता है। – जयशंकर प्रसाद

सब जीवन बीता जाता है,
धूप छाँह के खेल सदॄश,
सब जीवन बीता जाता है।

समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है।
सब जीवन बीता जाता है।

बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है।
सब जीवन बीता जाता है।

वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो,
जो कुछ हमको आता है।
सब जीवन बीता जाता है।    –  जयशंकर प्रसाद

मातृ वंदना – सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

        मातृ वंदना
नर जीवन के स्वार्थ सकल
बलि हों तेरे चरणों पर, माँ
मेरे श्रम सिंचित सब फल।

जीवन के रथ पर चढ़कर
सदा मृत्यु पथ पर बढ़ कर
महाकाल के खरतर शर सह
सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर;
जागे मेरे उर में तेरी
मूर्ति अश्रु जल धौत विमल
दृग जल से पा बल बलि कर दूँ
जननि, जन्म श्रम संचित पल।

बाधाएँ आएँ तन पर
देखूँ तुझे नयन मन भर
मुझे देख तू सजल दृगों से
अपलक, उर के शतदल पर;
क्लेद युक्त, अपना तन दूंगा
मुक्त करूंगा तुझे अटल
तेरे चरणों पर दे कर बलि
सकल श्रेय श्रम संचित फल।        – सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'


*साभार: कविताकोश

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

नाश-देवता ! (तार सप्तक) – गजानन माधव 'मुक्तिबोध'

                        नाश-देवता !
गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा,
तेरी प्रत्यंचा का कंपन सूनेपन का भार हरेगा
हिमवत, जड़, निःस्पंद हृदय के अंधकार में जीवन-भय है
तेरे तीक्ष्ण बाणों की नोकों पर जीवन-संचार करेगा ।

तेरे क्रुद्ध वचन बाणों की गति से अंतर में उतरेंगे,
तेरे क्षुब्ध हृदय के शोले उर की पीड़ा में ठहरेंगे
कोपुत तेरा अधर-संस्फुरण उर में होगा जीवन-वेदन
रुष्ट दृगों की चमक बनेगी आत्म-ज्योति की किरण सचेतन ।

सभी उरों के अंधकार में एक तड़ित वेदना उठेगी,
तभी सृजन की बीज-वृद्धि हित जड़ावरण की महि फटेगी
शत-शत बाणों से घायल हो बढ़ा चलेगा जीवन-अंकुर
दंशन की चेतन किरणों के द्वारा काली अमा हटेगी ।

हे रहस्यमय, ध्वंस-महाप्रभु, जो जीवन के तेज सनातन,
तेरे अग्निकणों से जीवन, तीक्ष्ण बाण से नूतन सृजन
हम घुटने पर, नाश-देवता ! बैठ तुझे करते हैं वंदन
मेरे सर पर एक पैर रख नाप तीन जग तू असीम बन ।  – गजानन माधव 'मुक्तिबोध' (संग्रह: तार सप्तक)


साभार: कविताकोश

बुधवार, 3 नवंबर 2010

ऐ इन्सानों! – गजानन माधव 'मुक्तिबोध'

       ऐ इन्सानों!

आँधी के झूले पर झूलो !
आग बबूला बन कर फूलो !

        कुरबानी करने को झूमो !
        लाल सवेरे का मूँह चूमो !

ऐ इन्सानों ओस न चाटो !
अपने हाथों पर्वत काटो !

        पथ की नदियाँ खींच निकालो !
        जीवन पीकर प्यास बुझालो !

रोटी तुमको राम न देगा !
वेद तुम्हारा काम न देगा !

        जो रोटी का युद्ध करेगा !
        वह रोटी को आप वरेगा !  – गजानन माधव 'मुक्तिबोध'

सोमवार, 1 नवंबर 2010

स्नेह-निर्झर बह गया है! – सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

स्नेह-निर्झर बह गया है!
रेत ज्यों तन रह गया है।

आम की यह डाल जो सुखी दिखी,
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-"
        जीवन दह गया है।

दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-
ठाट जीवन का वही
        जो ढह गया है।

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही
        कवि कह गया है।    – सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की – शैलेन्द्र

भगतसिंह! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फाँसी की !

यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--
बम्ब-सम्ब की छोड़ो, भाषण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
कांग्रेस का हुक्म; ज़रूरत क्या वारंट तलाशी की !

मत समझो, पूजे जाओगे क्योंकि लड़े थे दुश्मन से,
रुत ऎसी है आँख लड़ी है अब दिल्ली की लंदन से,
कामनवैल्थ कुटुम्ब देश को खींच रहा है मंतर से--
प्रेम विभोर हुए नेतागण, नीरा बरसी अंबर से,
भोगी हुए वियोगी, दुनिया बदल गई बनवासी की !

गढ़वाली जिसने अंग्रेज़ी शासन से विद्रोह किया,
महाक्रान्ति के दूत जिन्होंने नहीं जान का मोह किया,
अब भी जेलों में सड़ते हैं, न्यू-माडल आज़ादी है,
बैठ गए हैं काले, पर गोरे ज़ुल्मों की गादी है,
वही रीति है, वही नीति है, गोरे सत्यानाशी की !

सत्य अहिंसा का शासन है, राम-राज्य फिर आया है,
भेड़-भेड़िये एक घाट हैं, सब ईश्वर की माया है !
दुश्मन ही जब अपना, टीपू जैसों का क्या करना है ?
शान्ति सुरक्षा की ख़ातिर हर हिम्मतवर से डरना है !
पहनेगी हथकड़ी भवानी रानी लक्ष्मी झाँसी की !  – शैलेन्द्र (१९४८ | 1948)


साभार : कविताकोश

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

आह! वेदना मिली विदाई – जयशंकर प्रसाद

आह! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई।

छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई।

श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई।

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी आशा आह ! बावली
तूने खो दी सकल कमाई।

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई।

लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई।     –  जयशंकर प्रसाद

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

वर दे, वीणावादिनि वर दे। – सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

वर दे, वीणावादिनि वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव
भारत में भर दे।

काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।

नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को,
नव पर नव स्वर दे।

वर दे, वीणावादिनि वर दे।   – सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'


शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा ! – गोपालदास 'नीरज'

मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा !

यह जो रात चुरा बैठी है चांद सितारों की तरुणाई,
बस तब तक कर ले मनमानी जब तक कोई किरन न आई,
खुलते ही पलकें फूलों की, बजते ही भ्रमरों की वंशी
छिन्न-भिन्न होगी यह स्याही जैसे तेज धार से काई,
तम के पांव नहीं होते, वह चलता थाम ज्योति का अंचल
मेरे प्यार निराश न हो, फिर फूल खिलेगा, सूर्य मिलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!

सिर्फ भूमिका है बहार की यह आंधी-पतझारों वाली,
किसी सुबह की ही मंजिल है रजनी बुझे सितारों वाली,
उजड़े घर ये सूने आंगन, रोते नयन, सिसकते सावन,
केवल वे हैं बीज कि जिनसे उगनी है गेहूं की बाली,
मूक शान्ति खुद एक क्रान्ति है, मूक दृष्टि खुद एक सृष्टि है
मेरे सृजन हताश न हो, फिर दनुज थकेगा, मनुज चलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!

व्यर्थ नहीं यह मिट्टी का तप, व्यर्थ नहीं बलिदान हमारा,
व्यर्थ नहीं ये गीले आंचल, व्यर्थ नहीं यह आंसू धारा,
है मेरा विश्वास अटल, तुम डांड़ हटा दो, पाल गिरा दो,
बीच समुन्दर एक दिवस मिलने आयेगा स्वयं किनारा,
मन की गति पग-गति बन जाये तो फिर मंजिल कौन कठिन है?
मेरे लक्ष्य निराश न हो, फिर जग बदलेगा, मग बदलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!

जीवन क्या?-तम भरे नगर में किसी रोशनी की पुकार है,
ध्वनि जिसकी इस पार और प्रतिध्वनि जिसकी दूसरे पार है,
सौ सौ बार मरण ने सीकर होंठ इसे चाहा चुप करना,
पर देखा हर बार बजाती यह बैठी कोई सितार है,
स्वर मिटता है नहीं, सिर्फ उसकी आवाज बदल जाती है।
मेरे गीत उदास न हो, हर तार बजेगा, कंठ खुलेगा!
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा!   गोपालदास 'नीरज'

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान / (क्रान्ति गंगा) / – श्रीकृष्ण सरल

आज लग रहा कैसा जी को कैसी आज घुटन है
दिल बैठा सा जाता है, हर साँस आज उन्मन है
बुझे बुझे मन पर ये कैसी बोझिलता भारी है
क्या वीरों की आज कूच करने की तैयारी है?

हाँ सचमुच ही तैयारी यह, आज कूच की बेला
माँ के तीन लाल जाएँगे, भगत न एक अकेला
मातृभूमि पर अर्पित होंगे, तीन फूल ये पावन,
यह उनका त्योहार सुहावन, यह दिन उन्हें सुहावन।

फाँसी की कोठरी बनी अब इन्हें रंगशाला है
झूम झूम सहगान हो रहा, मन क्या मतवाला है।
भगत गा रहा आज चले हम पहन वसंती चोला
जिसे पहन कर वीर शिवा ने माँ का बंधन खोला।

झन झन झन बज रहीं बेड़ियाँ, ताल दे रहीं स्वर में
झूम रहे सुखदेव राजगुरु भी हैं आज लहर में।
नाच नाच उठते ऊपर दोनों हाथ उठाकर,
स्वर में ताल मिलाते, पैरों की बेड़ी खनकाकर।

पुनः वही आलाप, रंगें हम आज वसंती चोला
जिसे पहन राणा प्रताप वीरों की वाणी बोला।
वही वसंती चोला हम भी आज खुशी से पहने,
लपटें बन जातीं जिसके हित भारत की माँ बहनें।

उसी रंग में अपने मन को रँग रँग कर हम झूमें,
हम परवाने बलिदानों की अमर शिखाएँ चूमें।
हमें वसंती चोला माँ तू स्वयं आज पहना दे,
तू अपने हाथों से हमको रण के लिए सजा दे।

सचमुच ही आ गया निमंत्रण लो इनको यह रण का,
बलिदानों का पुण्य पर्व यह बन त्योहार मरण का।
जल के तीन पात्र सम्मुख रख, यम का प्रतिनिधि बोला,
स्नान करो, पावन कर लो तुम तीनो अपना चोला।

झूम उठे यह सुनकर तीनो ही अल्हण मर्दाने,
लगे गूँजने और तौव्र हो, उनके मस्त तराने।
लगी लहरने कारागृह में इंक्लाव की धारा,
जिसने भी स्वर सुना वही प्रतिउत्तर में हुंकारा।

खूब उछाला एक दूसरे पर तीनों ने पानी,
होली का हुड़दंग बन गई उनकी मस्त जवानी।
गले लगाया एक दूसरे को बाँहों में कस कर,
भावों के सब बाँढ़ तोड़ कर भेंटे वीर परस्पर।

मृत्यु मंच की ओर बढ़ चले अब तीनो अलबेले,
प्रश्न जटिल था कौन मृत्यु से सबसे पहले खेले।
बोल उठे सुखदेव, शहादत पहले मेरा हक है,
वय में मैं ही बड़ा सभी से, नहीं तनिक भी शक है।

तर्क राजगुरु का था, सबसे छोटा हूँ मैं भाई,
छोटों की अभिलषा पहले पूरी होती आई।
एक और भी कारण, यदि पहले फाँसी पाऊँगा,
बिना बिलम्ब किए मैं सीधा स्वर्ग धाम जाऊँगा।

बढ़िया फ्लैट वहाँ आरक्षित कर तैयार मिलूँगा,
आप लोग जब पहुँचेंगे, सैल्यूट वहाँ मारूँगा।
पहले ही मैं ख्याति आप लोगों की फैलाऊँगा,
स्वर्गवासियों से परिचय मैं बढ, चढ़ करवाऊँगा।

तर्क बहुत बढ़िया था उसका, बढ़िया उसकी मस्ती,
अधिकारी थे चकित देख कर बलिदानी की हस्ती।
भगत सिंह के नौकर का था अभिनय खूब निभाया,
स्वर्ग पहुँच कर उसी काम को उसका मन ललचाया।

भगत सिंह ने समझाया यह न्याय नीति कहती है,
जब दो झगड़ें, बात तीसरे की तब बन रहती है।
जो मध्यस्त, बात उसकी ही दोनों पक्ष निभाते,
इसीलिए पहले मैं झूलूं, न्याय नीति के नाते।

यह घोटाला देख चकित थे, न्याय नीति अधिकारी,
होड़ा होड़ी और मौत की, ये कैसे अवतारी।
मौत सिद्ध बन गई, झगड़ते हैं ये जिसको पाने,
कहीं किसी ने देखे हैं क्या इन जैसे दीवाने?

मौत, नाम सुनते ही जिसका, लोग काँप जाते हैं,
उसको पाने झगड़ रहे ये, कैसे मदमाते हें।
भय इनसे भयभीत, अरे यह कैसी अल्हण मस्ती,
वन्दनीय है सचमुच ही इन दीवानो की हस्ती।

मिला शासनादेश, बताओ अन्तिम अभिलाषाएँ,
उत्तर मिला, मुक्ति कुछ क्षण को हम बंधन से पाएँ।
मुक्ति मिली हथकड़ियों से अब प्रलय वीर हुंकारे,
फूट पड़े उनके कंठों से इन्क्लाब के नारे ।

इन्क्लाब हो अमर हमारा, इन्क्लाब की जय हो,
इस साम्राज्यवाद का भारत की धरती से क्षय हो।
हँसती गाती आजादी का नया सवेरा आए,
विजय केतु अपनी धरती पर अपना ही लहराए।

और इस तरह नारों के स्वर में वे तीनों डूबे,
बने प्रेरणा जग को, उनके बलिदानी मंसूबे।
भारत माँ के तीन सुकोमल फूल हुए न्योछावर,
हँसते हँसते झूल गए थे फाँसी के फंदों पर।

हुए मातृवेदी पर अर्पित तीन सूरमा हँस कर,
विदा हो गए तीन वीर, दे यश की अमर धरोहर।
अमर धरोहर यह, हम अपने प्राणों से दुलराएँ,
सिंच रक्त से हम आजादी का उपवन महकाएँ।

जलती रहे सभी के उर में यह बलिदान कहानी,
तेज धार पर रहे सदा अपने पौरुष का पानी।
जिस धरती बेटे हम, सब काम उसी के आएँ,
जीवन देकर हम धरती पर, जन मंगल बरसाएँ।।   श्रीकृष्ण सरल


साभार: कविताकोश

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए – दुष्यन्त कुमार

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए        – दुष्यन्त कुमार

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

वरदान माँगूँगा नहीं – शिवमंगल सिंह 'सुमन'

यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

स्‍मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्‍व की संपत्ति चाहूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

क्‍या हार में क्‍या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्‍यर्थ त्‍यागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशप दो
कुछ भी करो कर्तव्‍य पथ से किंतु भागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।   – शिवमंगल सिंह 'सुमन'


साभार : कविताकोश, विकिपीडिया

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है - गोपालदास 'नीरज'

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ लुटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरियाँ फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गन्ध फूल की,
तूफानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है !   - गोपालदास 'नीरज'
पद्म भूषण श्री गोपालदास "नीरज" की आवाज में भी इस कविता को सुनें:




रविवार, 10 अक्तूबर 2010

मिट्टी से व्यर्थ लड़ाई है / डॉ. हरिवंशराय बच्चन / आकुल अंतर


नीचे रहती है पावों के,
सिर चढ़ती राजा-रावों के,
अंबर को भी ढ़क लेने की यह आज शपथ कर आई है।
मिट्टी से व्यर्थ लड़ाई है।

सौ बार हटाई जाती है,
फिर आ अधिकार जमाती है,
हा हंत, विजय यह पाती है,
कोई ऐसा रंग-रूप नहीं जिस पर न अंत को छाई है।
मिट्टी से व्यर्थ लड़ाई है।

सबको मिट्टीमय कर देगी,
सबको निज में लय कर देगी,
लो अमर पंक्तियों पर मेरी यह निष्प्रयास चढ़ आई है।
मिट्टी से व्यर्थ लड़ाई है।    - (आकुल अंतर, १९४३)

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

रक्तमुख - जानकीवल्लभ शास्त्री

कुपथ कुपथ रथ दौड़ाता जो
पथ निर्देशक वह है,
लाज लजाती जिसकी कृति से
धृति उपदेश वह है

मूर्त दंभ गढ़ने उठता है
शील विनय परिभाषा,
मृत्यू रक्तमुख से देता
जन को जीवन की आशा

जनता धरती पर बैठी है
नभ में मंच खड़ा है,
जो जितना है दूर मही से
उतना वही बड़ा है     - जानकीवल्लभ शास्त्री


साभार: कविताकोश

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा – गोपाल सिंह 'नेपाली'

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

दो दिन के रैन बसेरे की,
हर चीज़ चुराई जाती है
दीपक तो अपना जलता है,
पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाए
तस्वीर किसी के मुखड़े की
रह गए खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

शबनम-सा बचपन उतरा था,
तारों की गुमसुम गलियों में
थी प्रीति-रीति की समझ नहीं,
तो प्यार मिला था छलियों से
बचपन का संग जब छूटा तो
नयनों से मिले सजल नयना
नादान नये दो नयनों को, नित नये बजारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

हर शाम गगन में चिपका दी,
तारों के अक्षर की पाती
किसने लिक्खी, किसको लिक्खी,
देखी तो पढ़ी नहीं जाती
कहते हैं यह तो किस्मत है
धरती के रहनेवालों की
पर मेरी किस्मत को तो इन, ठंडे अंगारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

अब जाना कितना अंतर है,
नज़रों के झुकने-झुकने में
हो जाती है कितनी दूरी,
थोड़ा-सी रुकने-रुकने में
मुझ पर जग की जो नज़र झुकी
वह ढाल बनी मेरे आगे
मैंने जब नज़र झुकाई तो, फिर मुझे हज़ारों ने लूटा
मेरी दुल्हन-सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा    – गोपाल सिंह 'नेपाली'

साभार: कविताकोश
चित्र: विकीमीडिया

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

'द्वान्दगीत' के कुछ छंद पढ़िए - राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर'

राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह 'दिनकर' के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर उनके द्वारा रचित 'द्वन्दगीत' के कुछ छंद आपके समक्ष रखना चाहूँगा

ये द्वन्दयुद्ध हम सभी  मन में होता है जैसे कुछ विचार प्रेरित करते युद्धभूमि में कूदने को, कुछ सचेत करते हैं और भयक्रांत करते हैं, कुछ विचार प्रेम में समर्पण की राह दिखाते हैं वहीँ कुछ विचार विचारने करने को कहते हैं यह पंक्ति "जिनको मस्तक का मोह नहीं, उनकी गिनती नादानों में" बहुतों को अच्छी लगी हों क्योंकि यही  सत्य है, यथार्थ है , पर नहीं भी है..क्योंकि यह नहीं होना चाहिएपर ऐसा हो रहा है "जिनको मस्तक का मोह नहीं, उनकी गिनती नादानों में" ही होती है  ...
प्रस्तुत हैं कुछ छंद जिनका मैं आप लोगों के साथ पुनर्पाठ करना चाहूँगा :-

जिनमें बाकी ईमान, अभी वे भटक रहे वीरानों में,
दे रहे सत्य की जाँच आखिरी दमतक रेगिस्तानों में।
ज्ञानी वह जो हर कदम धरे बचकर तप की चिनगारी से,
जिनको मस्तक का मोह नहीं, उनकी गिनती नादानों में।

अब उसी द्वन्दयुद्ध की कुछ प्रेरणात्मक पंक्तियों को देखिये:

पी ले विष का भी घूँट बहक, तब मजा सुरा पीने का है,
तनकर बिजली का वार सहे, यह गर्व नये सीने का है।
सिर की कीमत का भान हुआ, तब त्याग कहाँ? बलिदान कहाँ?
गरदन इज्जत पर दिये फिरो, तब मजा यहाँ जीने का है।

और उसी कलम की कुछ निश्चिन्त पंक्तियाँ :

तू जीवन का कंठ, भंग इसका कोई उत्साह न कर,
रोक नहीं आवेग प्राण के,सँभल-सँभल कर आह न कर।
उठने दे हुंकार हृदय से,जैसे वह उठना चाहे;किसका,
कहाँ वक्ष फटता है,तू इसकी परवाह न कर।

उसी "द्वन्दगीत" कि कुछ और पंक्तियाँ:

दिये नयन में अश्रु, हॄदय में भला किया जो प्यार दिया,
मुझमें मुझे मग्न करने को स्वप्नों का संसार दिया।
सब-कुछ दिया मूक प्राणों की वंशी में वाणी देकर,
पर क्यों हाय, तृषा दी,उर में भीषण हाहाकार दिया?

और इन पंक्तियों में जगती को फूंकने की बात इस तरह से कह रहे हैं :

विभा, विभा, ओ विभा हमें दे, किरण! सूर्य! दे उजियाली।
आह! युगों से घेर रही मानव-शिशु को रजनी काली।
प्रभो! रिक्त यदि कोष विभा का तो फिर इतना ही कर दे;
दे जगती को फूँक, तनिक झिलमिला उठे यह अँधियाली।

और उसी रचना में दिनकर जी कवि के बारे में कहते हैं:

मेरे उर की कसक हाय,तेरे मन का आनन्द हुई।
इन आँखों की अश्रुधार ही तेरे हित मकरन्द हुई।
तू कहता ’कवि’ मुझे, किन्तु,आहत मन यह कैसे माने?
इतना ही है ज्ञात कि मेरी व्यथा उमड़कर छन्द हुई।

अब देखिये कैसा मीठा छंद है ये :
 दो अधरों के बीच खड़ी थी भय की एक तिमिर-रेखा,
आज ओस के दिव्य कणों में धुल उसको मिटते देखा।
जाग, प्रिये! निशि गई, चूमती पलक उतरकर प्रात-विभा,
जाग,लिखें चुम्बन से हम जीवन का प्रथम मधुर लेखा।

छंद यह भी उसी द्वन्दगीत का :
जीवन ही कल मृत्यु बनेगा, और मृत्यु ही नव-जीवन,
जीवन-मृत्यु-बीच तब क्यों द्वन्द्वों का यह उत्थान-पतन?
ज्योति-बिन्दु चिर नित्य अरे, तोधूल बनूँ या फूल बनूँ,
जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों उसे कहो दे अश्रु मरण?

मैं भी हँसूँ फूल-सा खिलकर? शिशु अबोध हो लूँ कैसे?
पीकर इतनी व्यथा, कहो, तुतली वाणी बोलूँ कैसे?
जी करता है, मत्त वायु बन फिरूँ; कुंज में नृत्य करूँ,
पर, हूँ विवश हाय, पंकज का हिमकण हूँ, डोलूँ कैसे?

औ’ रोना भी व्यर्थ, मृदुल जब हुआ व्यथा का भार नहीं,
आँसू पा बढ़ता जाता है, घटता पारावार नहीं;
जो कुछ मिले भोग लेना है, फूल हों कि हों शूल सखे!
पश्चाताप यही कि नियति पर हमें स्वल्प अधिकार नहीं।

पत्थर ही पिघला न, कहो करुणा की रही कहानी क्या
टुकड़े दिल के हुए नहीं, तब बहा दृगों से पानी क्या?
मस्ती क्या जिसको पाकर फिर दुनिया की भी याद रही?
डरने लगी मरण से तो फिर चढ़ती हुई जवानी क्या?

ठोकर मार फोड़ दे उसको जिस बरतन में छेद रहे,
वह लंका जल जाय जहाँ भाई - भाई में भेद रहे।
गजनी तोड़े सोमनाथ को, काबे को दें फूँक शिवा,
जले कुराँ अरबी रेतों में, सागर जा फिर वेद रहे।

छोड़े पोथी-पत्र, मिला जब अनुभव में आह्लाद मुझे,
फूलों की पत्ती पर अंकित एक दिव्य संवाद मुझे;
दहन धर्म मानव का पाया, अतः, दुःख भयहीन हुआ;
अब तो दह्यमान जीवन में भी मिलता कुछ स्वाद मुझे।

पहली सीख यही जीवन की,अपने को आबाद करो,
बस न सके दिल की बस्ती,तो आग लगा बरबाद करो।
खिल पायें, तो कुसुम खिलाओ,नहीं? करो पतझाड़ इसे,
या तो बाँधो हृदय फूल से, याकि इसे आजाद करो।

पूजा का यह कनक - दीप खँडहर में आन जलाया क्यों?
रेगिस्तान हृदय था मेरा, पाटल - कुसुम खिलाया क्यों?
मैं अन्तिम सुख खोज रहा था तप्त बालुओं में गिरकर।
बुला रहा था सर्वनाश को यह पीयूष पिलाया क्यों?

पी चुके गरल का घूँट तीव्र, हम स्वाद जीस्त का जान चुके,
तुम दुःख, शोक बन-बन आये, हम बार-बार पहचान चुके।
खेलो नूतन कुछ खेल, देव! दो चोट नई, कुछ दर्द नया,
यह व्यथा विरस निःस्वाद हुई, हम सार भाग कर पान चुके।

बाँसुरी विफल, यदि कूक-कूक मरघट में जीवन ला न सकी,
सूखे तरु को पनपा न सकी,मुर्दों को छेड़ जगा न सकी।
यौवन की वह मस्ती कैसी जिसको अपना ही मोह सदा?
जो मौत देख ललचा न सकी, दुनिया में आग लगा न सकी।

धरती से व्याकुल आह उठी, मैं दाह भूमि का सह न सका,
दिल पिघल-पिघल उमड़ा लेकिन, आँसू बन-बनकर बह न सका।
है सोच मुझे दिन-रात यही, क्या प्रभु को मुख दिखलाऊँगा?
जो कुछ कहने मैं आया था, वह भेद किसी से कह न सका।

चाँदनी बनाई, धूप रची, भूतल पर व्योम विशाल रचा,
कहते हैं, ऊपर स्वर्ग कहीं, नीचे कोई पाताल रचा।
दिल - जले देहियों को केवल लीला कहकर सन्तोष नहीं;
ओ रचनेवाले! बता, हाय! आखिर क्यों यह जंजाल रचा?

सम्पुटित कोष को चीर, बीज-कण को किसने निर्वास दिया
किसको न रुचा निर्वाण? मिटा किसने तुरीय का वास दिया?
चिर-तृषावन्त कर दूर किया जीवन का देकर शाप हमें,
जिसका न अन्त वह पन्थ, लक्ष्य-सीमा-विहीन आकाश दिया।

जो सृजन असत्, तो पूण्य-पाप का श्वेत - नील बन्धन क्यों है?
स्वप्नों के मिथ्या - तन्तु - बीच आबद्ध सत्य जीवन क्यों है?
हम स्वयं नित्य, निर्लिप्त अरे, तो क्यों शुभ का उपदेश हमें?
किस चिन्त्य रूप का अन्वेषण? यह आराधन-पूजन क्यों है?

हर घड़ी प्यास, हर रोज जलन, मिट्टी में थी यह आग कहाँ?
हमसे पहले था दुखी कौन? था अमिट व्यथा का राग कहाँ?
लो जन्म; खोजते मरो विफल; फिर जन्म; हाय, क्या लाचारी
!हम दौड़ रहे जिस ओर सतत, वह अव्यय अमिय-तड़ाग कहाँ?

और अब देखिये श्रृष्टि को क्या कह गए दिनकर जी:

गत हुए अमित कल्पान्त, सृष्टि पर, हुई सभी आबाद नहीं,
दिन से न दाह का लोप हुआ, निशि ने छोड़ा अवसाद नहीं।
बरसी न आज तक वृष्टि जिसे पीकर मानव की प्यास बुझे,
हम भली भाँति यह जान चुके तेरी दुनिया में स्वाद नहीं।

हम ज्यों-ज्यों आगे बढ़े, दृष्टि-पथ से छिपता आलोक गया,
सीखा ज्यों-ज्यों नव ज्ञान, हमें मिलता त्यों-त्यों नव शोक गया।
हाँ, जिसे प्रेम हम कहते हैं, उसका भी मोल पड़ा देना,
जब मिली संगिनी, अदन गया, कर से विरागमय लोक गया।

भू पर उतरे जिस रोज, धरी पहिले से ही जंजीर मिली,
परिचय न द्वन्द्व से था, लेकिन, धरती पर संचित पीर मिली।
जब हार दुखों से भाग चले, तब तक सत्पथ का लोप हुआ,
जिसपर भूले सौ लोग गये, सम्मुख वह भ्रान्त लकीर मिली।

तिल-तिलकर हम जल चुके, विरह की तीव्र आँच कुछ मन्द करो,
सहने की अब सामर्थ्य नहीं, लीला - प्रसार यह बन्द करो।
चित्रित भ्रम-जाल समेट धरो, हम खेल खेलते हार चुके,
निर्वाषित करो प्रदीप, शून्य में एक तुम्हीं आनन्द करो।  रामधारी सिंह 'दिनकर'

अब आगे मैं चाहूँगा की आप राष्ट्रकवि दिनकर जी को उनके जन्म-दिवस पर समर्पित मेरी कवितांजलि  भी देखें : http://pankaj-patra.blogspot.com/2010/09/dinkar-ji-ko-prakash-pankaj-kavitanjali.html 

 

शनिवार, 11 सितंबर 2010

सरहद के पार से / रामधारी सिंह 'दिनकर' / सामधेनी


जन्मभूमि से दूर, किसी बन में या सरित-किनारे,
हम तो लो, सो रहे लगाते आजादी के नारे।

ज्ञात नहीं किनको कितने दुख में हम छोड़ चले हैं,
किस असहाय दशा में किनसे नाता तोड़ चले हैं।


जो रोयें, तुम उन्हें सुनाना ज्वालामयी कहानी,
स्यात्, सुखा दे यह ज्वाला उनकी आँखों का पानी।

आये थे हम यहाँ देश-माता का मान बढ़ाने,
स्वतन्त्रता के महा यज्ञ में अपना हविस् चढ़ाने।


सो पूर्णाहुति हुई; देवता की सुन अन्य पुकार,
मिट्टी की गोदी तज हम चलने को हैं तैयार।

माँ का आशीर्वाद, प्रिया का प्रेम लिये जाते हैं,
केवल है सन्देश एक जो तुम्हें दिये जाते हैं।

यह झण्डा, जिसको मुर्दे की मुट्ठी जकड़ रही है,
छिन न जाय, इस भय से अब भी कस कर पकड़ रही है;

 
थामो इसे; शपथ लो, बलि का कोई क्रम न रुकेगा,
चाहे जो हो जाय, मगर, यह झण्डा नहीं झुकेगा।


इस झण्डे में शान चमकती है मरने वालों की,
भीमकाय पर्वत से मुट्ठीभर लड़नेवालों की।

इसके नीचे ध्वनित हुआ ’आजाद हिन्द’ का नारा,
बही देश भर के लोहू की यहाँ एक हो धारा।

जिस दिन हो तिमिरान्त, विजय की किरणें जब लहरायें,
अलग-अलग बहनेवाली ये सरिताएँ मिल जाएँ।


संगम पर गाड़ना ध्वजा यह, इसका मान बढ़ाना,
और याद में हम-जैसों की भी दो फूल चढ़ाना।  रामधारी सिंह 'दिनकर' (सामधेनी)

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है - रामधारी सिंह 'दिनकर' / सामधेनी

वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।
चिनगारी बन गई लहू की बूँद गिरी जो पग से;
चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण - चिह्न जगमग - से।
शुरू हुई आराध्य-भूमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं, क्यों पड़ने डगमग - से?
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।
अपनी हड्डी की मशाल से हॄदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेय है शेष किसी विधि पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है,
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्तकर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलायेगी ही,
अम्बर पर घन बन छायेगा ही उच्छवास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।   रामधारी सिंह 'दिनकर' (सामधेनी)

रविवार, 15 अगस्त 2010

नमामि कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम् ।। वन्दे मातरम् । श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां धरणीं भरणीं मातरम् ।। वन्दे मातरम् ।।










वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यशामलां मातरम् ।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीं
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं
सुखदां वरदां मातरम् ।। १ ।। वन्दे मातरम् ।
कोटि-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले ।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं मातरम् ।। २ ।। वन्दे मातरम् ।
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वं हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडि
मन्दिरे-मन्दिरे मातरम् ।। ३ ।। वन्दे मातरम् ।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलां
सुजलां सुफलां मातरम् ।। ४ ।। वन्दे मातरम् ।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषितां
धरणीं भरणीं मातरम् ।। ५ ।। वन्दे मातरम् ।।    
बंकिम चन्द्र चटर्जी (आनंद मठ)


लता जी के स्वर मे हिंदी फिल्म "आनंद मठ" मे यह गीत सुनें :


हेमंत कुमार के स्वर मे हिंदी फिल्म "आनंद मठ" मे यह गीत सुनें :



http://www.esnips.com/doc/f858febb-6134-444f-b102-d21b8a9f2050/Vande-Mataram-Ringtone



Translation  by Shree Aurobindo


Mother, I bow to thee!  
Rich with thy hurrying streams,  
bright with orchard gleams,  
Cool with thy winds of delight,  
Dark fields waving Mother of might,  
Mother free.  

Glory of moonlight dreams,  
Over thy branches and lordly streams,  
 Clad in thy blossoming trees,  
Mother, giver of ease  
Laughing low and sweet!  
Mother I kiss thy feet,  
Speaker sweet and low!  
Mother, to thee I bow.  
  

Who hath said thou art weak in thy lands  
When the sword flesh out in the seventy million hands  
And seventy million voices roar  
Thy dreadful name from shore to shore?  
With many strengths who art mighty and stored,  
To thee I call Mother and Lord!  
Though who savest, arise and save!  
To her I cry who ever her foe-man drove  
Back from plain and Sea  
And shook herself free.  
    

Thou art wisdom, thou art law, 
Thou art heart, our soul, our breath 
Though art love divine, the awe 
In our hearts that conquers death. 
Thine the strength that nerves the arm, 
Thine the beauty, thine the charm. 
Every image made divine 
In our temples is but thine. 



Thou art Durga, Lady and Queen, 
With her hands that strike and her 
swords of sheen, 
Thou art Lakshmi lotus-throned, 
And the Muse a hundred-toned, 
Pure and perfect without peer, 
Mother lend thine ear, 
Rich with thy hurrying streams, 
Bright with thy orchard gleems, 
Dark of hue O candid-fair 

In thy soul, with jeweled hair 
And thy glorious smile divine, 
Loveliest of all earthly lands, 
Showering wealth from well-stored hands! 
Mother, mother  mine! 
Mother sweet, I bow to thee, 
Mother great and free! 

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